Monday, October 4, 2010

यहाँ अँधेरा नहीं है

कभी-कभी कुछ बातें ऐसी घटित हो जाती हैं कि उनकी व्याख्या असंभव हो जाती है.जब आदमी शरीर और मन दोनों से अशक्त हो जाता है तभी उसकी आस्था परमात्मा के प्रति शरणागत भाव से निवेदित होती है
जो उस दौर में उसके उच्छवास होते हैं वो कभी कविता में ,कभी ग़ज़ल में ,तो कभी रुबाइयों में दृश्यगत होते है .ऐसी ही घटना को जीते हुए मैंने जो अनुभूतियाँ पाई उसी की अभिव्यक्ति अधोलिखित मेरी रचना है-




दूर क्षितिज के पार कोई है-
अंतर-गर्तों के पार कोई है-
मन -चपला के पार कोई है-
शून्य -स्वर्ग के पार कोई है!

जो रोज बुलावा देता है,
आने का छलावा देता है,
टूटे मन के अदृश्य डोर को
निर्टूट सहारा देता है

मन- सतरंगे के रंगों को
उल्लास -प्रफुल्ल पुलकित अंगों को-
साँसों की झीनी चादर को -
कोई रंग अजूबा देता है!
जो रोज बुलावा ........
आने का ...........

करुणा, कसक ,हया ,दया को-
आशा,अभिलाषा,हर्ष,अमर्ष को,
प्रत्यंचा पर चढ़ी मौत को-
राह अलग कोई देता है.
जो रोज ......
आने का .....

प्रवाहमान अविरल सांसों को-
तिमिराभूत इच्छित -आसों को-
थकी नसों में सुप्त लहू को-
रंग सुर्ख-सा कोई देता है!
जो रोज ....
आने का....

मर्म -कथ्य को मन में रख,
कर्म -कथ्य को विस्मृत कर,
आर्त्त- पुकार की मौन व्यथा को-
कन्धों का सहारा देता है
जो रोज....
आने का .....








Sunday, September 5, 2010

खुदा

हर ज़िल्लत, हर फ़ाकाक़शी का ग़वाह रहा वो
हर मन्ऩत, हर तिज़ारत का चश्मदीद रहा वो,

अपने
मतलब के तरीक़े बुत गढ़ लिए उसका,
जब
जी में आया तो सज़दा किया उसका.

अपने तस्सबुर की राहों का हमसफ़र बना लिया,
रास उसका साथ तो खुद दश्त--दफ़्न कर दिया.

है
वो कौन? रह्ता कहाँ? पता नहीं यारों
है
दिल के क़रीब, याँ वा वहाँ जाना नहीं यारो.

जब भी कोई फ़रियाद ले पहुँचा हूँ उसके पास
कुछ कहता वो,उसकी आँखें करती हैं पूरी आस.

चिढ़
के समय की तल्खियों से हो जाता हूँ बदजुबान
वो
है तो बे ग़म अरसे से हमें करता है बे जुबान.

जब भी थूका मंसूबों को अंबर पे, गिरता अपने सर
जब भी टूटो,हाथ उठा देखो उसे आँखों भर.

विनय
कुमार उपाध्याय

Tuesday, August 3, 2010

ईश्वर

सुविधाओं का बा़जार, विश्वास बिकता है,
दुशवारिओं का मज़ार, ग़म पिघलता है ।

हर इच्छा इक आकार लेती है,
अनिच्छएँ निराकार हो जाती हैं,
विद्रोह करना हमारी आदत है
दर्द में तड़पना ही इबादत है।

हर जीत तो हमारी है,
पर हार की भागीदारी नहीं,
बजी सुरीली तो मैंने बजाई है,
बेसुरी हो तो बाँसुरी तुम्हारी है।

चित्त भी उसी का,पट्ट भी उसी का है,
गगन भी,चमन भी,कायनात भी उसी का है,
मोह भी,भोग भी,निर्वाण भी उसी का है,
तेरा क्या? उसका क्या? जब तू ही उसी का है ।

खुश होकर मचल ले,वो देखता है,
रो-रोकर दहक ले,वो देखता है,
स्वयं को ठग कर इतरा, वो देखता है,
ना देखता तो तू खुद को, वो देखता है।

विभ्रम में जीना अच्छा लगता है,
सपने पाल के रखना अच्छा लगता है,
वो तो कोई नहीं इक बहाना है,
बहाने भी पाल के रखना अच्छा लगता है।

विनय कुमार उपाध्याय